Rajasthan GK - Famous Lok Saints of Rajasthan

Famous Lok Saints of Rajasthan

         मीराबाई 

राजस्थान के प्रसिद्ध लोक संत


 संत जाम्भेश्वर जी    - पीपासर, नागौर

 संत पीपाजी           - पीपा धाम (गागरोन, झालावाड़)

 संत रामचरण जी महाराज - शाहपुरा भीलवाड़ा 

दादू दयाल जी        - नारायणा, जयपुर 

जसनाथ जी          - कतरियासर, बीकानेर 

संत धन्ना जी         - धुवन गांव, टोंक 

संत लाल दास जी - धोलीदूब गांव (नगला, भरतपुर) 

हरिराम दास जी   - सिंहथल, बीकानेर 

संत रामदास जी  - खेड़ापा, जोधपुर 

मीराबाई             - कुड़की ग्राम (मेड़ता, नागौर)

संत रैदास          - कुंभ श्याम मंदिर, चित्तौड़गढ़ 

संत मावजी       - साँवला गांव (आसपुर, डूंगरपुर) 

गवरी बाई         - डूंगरपुर 

संत बालानंदाचार्य जी  - गढ़मुक्तेश्वर 

आचार्य तुलसी  - लाडनूं , नागौर 

मुस्लिम संत या पीर 

ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती  - अजमेर 

नरहड़ के पीर                 - चिड़ावा, झुंझुनू 

पीर फखरुद्दीन               - गलियाकोट, डूंगरपुर


 संत जांबेश्वर जी - पीपासर, नागौर

जन्म - 1451 ईस्वी में जन्माष्टमी के दिन पीपासर, नागौर के पंवार वंशीय राजपूत परिवार में हुआ।

जांभोजी ने 1485 ईस्वी में समराथल (बीकानेर) में विश्नोई संप्रदाय की स्थापना की । 

इस संप्रदाय के अनुयाई 29 नियमों का पालन करते थे , इसलिए इन्हें (20 + 9) विश्नोई कहा जाता है ।

इन्होंने हिंदू मुस्लिम धर्मों में व्याप्त बाहरी आडंबरों का विरोध किया तथा नैतिक जीवन पर बल दिया ।

इन्होंने वृक्ष काटने , पशु वध पर रोक लगाई तथा विधवा विवाह पर बल दिया ।

इन्होंने मुकाम गांव में समाधि ली जहां वर्ष में दो बार फाल्गुन मास व आसोज माह में मेला भरता है।

पीपासर (नागौर), मुकाम (बीकानेर), लालासर (बीकानेर), जाम्भा (जोधपुर) जागलू (बीकानेर) रामड़ाबास (जोधपुर) इनके प्रमुख केंद्र है।

 इन्हें पर्यावरणीय वैज्ञानिक भी कहा गया है ।

विश्नोई जाति के लोग शवों को गाड़ते हैं।


संत पीपाजी - पीपा धाम गागरोन झालावाड़ 

         संत पीपा जी के पगलिये (पीपाधाम, झालावाड़)

संत पीपा जी का जन्म 1425 में गागरोन के खींची चौहान शासक के यहां हुआ।

इनका मूल नाम प्रताप सिंह था ।

यह रामानंद जी के शिष्य थे ।

संत पीपा ने गुरु भक्ति और सत्संग को मोक्ष का साधन मानते हुए ऊंच-नीच की भावना का विरोध किया।

समदड़ी गांव (बाड़मेर) में संत पीपा का मंदिर बना हुआ है।

दर्जी समुदाय इन्हें अपना आराध्य मानता है।


 संत रामचरण जी महाराज

जन्म -  1718 में जयपुर राज्य के सोडा ग्राम में हुआ ।

इनके बचपन का नाम रामकिशन था।

संत राम चरण जी ने रामस्नेही संप्रदाय की स्थापना की ।

इस संप्रदाय के प्रार्थना स्थल रामद्वारा कहलाते हैं, जहां गुरु का चित्र रखा जाता है।

 शाहपुरा (भीलवाड़ा), सिंहथल (बीकानेर), रैण (नागौर) खैड़पा (जोधपुर ) इनकी गद्दियाँ है ।

फूलडोल उत्सव शाहपुरा इसी संप्रदाय से संबंधित है।


 दादू दयाल जी - नारायणा (जयपुर)

दादूपंथी इनका जन्म  1544 ईस्वी में गुजरात के अहमदाबाद नामक स्थान पर मानते हैं।

दादू जी ने 1602 ईसवी में जयपुर के पास नारायणा नामक स्थान पर दादू संप्रदाय की स्थापना की।

दादू जी द्वारा कविता में व्यक्त किए गए विचारों को उनके शिष्यों ने संकलन किया, जिनको "दादू दयाल की वाणी" तथा "दादू दयाल रा दूहा" कहते हैं।

इस संप्रदाय के लोग तिलक न लगाना , माला न पहनना तथा सत्यराम कहकर अभिवादन करते हैं ।

दादू पंथ के सत्संग स्थल को अलख दरीबा कहते हैं ।

उनके शिष्यों में गरीब दास, मिस्कि दास, सुंदर दास तथा रज्जब प्रमुख है ।

दादू जी के शिष्य परंपरा में 152 शिष्य माने जाते हैं जिनमें से 52 प्रधान रूप से स्वीकृत 52 स्तंभ कहलाते हैं।

 रज्जब का जन्म एवं मृत्यु सांगानेर में हुई यह जीवन भर दूल्हे के वेश में रहे

सुन्दरदास को दूसरा शंकराचार्य कहा गया ।उन्होंने दादू पंथ में नागा परंपरा को प्रारंभ किया।

दादूपंथी शव को पशुओं के भक्षण हेतु खुला छोड़ देते हैं।


जसनाथ जी - कतरियासर (बीकानेर)

जन्म - 1482 ईस्वी में जाट परिवार में कतरियासर (बीकानेर) गांव में हुआ । 

इन्होंने ज्ञानमार्गी जसनाथी संप्रदाय की स्थापना की।

इस संप्रदाय में सृष्टि, ईश्वर, मोक्ष तथा कर्म के संबंध में गुरु के मार्गदर्शन एवं ईश्वर की उपासना पर बल दिया।

 इस संप्रदाय के अधिकांश लोग जाट जाति के हैं।

इनके उपदेश सिंभूधड़ा तथा कोड़ो ग्रंथ में संग्रहित हैं।

इनके संप्रदाय के लोगों को 36 नियमों का पालन करना पड़ता है ।

इन्होंने सन् 1506 में कतरियासर में जीवित समाधि ली ।

उन्होंने गोरख मालिया (बीकानेर) में ज्ञान प्राप्त किया ।

उनके अनुयाई काली ऊन का धागा पहनते हैं एवं अग्नि नृत्य करते हैं।


संत धन्ना जी -धुवन गांव (टोंक) 

जन्म 1415 इसी में धुवन गांव (टोंक) में एक जाट परिवार में।

यह रामानंद जी के शिष्य थे।

 इन्होंने जाति- पाति, ऊंच-नीच की भावना का विरोध किया व गुरु के मार्गदर्शन को आवश्यक बताया। 

इन्हें राजस्थान में भक्ति आंदोलन का प्रवर्तक माना जाता है।

 लालदास जी 

इनका जन्म मेवात प्रदेश के धोलीदूब गांव में 1540 ईस्वी को हुआ।

यह जाति से मेव थे।

 इनके सिद्धांत "वाणी ग्रंथ" में संग्रहित हैं।

 इनका देहांत नगला (भरतपुर) में हुआ।


मीराबाई -  कुड़की गांव (मेड़ता, नागौर)

 मीराबाई का जन्म 1504 ईसवी में कुड़की गांव (मेड़ता , नागौर) के शासक रतन सिंह के घर हुआ।

इनका बचपन का नाम पेमल था। 

इनका विवाह मेवाड़ शासक महाराणा सांगा के पुत्र भोजराज के साथ हुआ ।

"पदावली" मीराबाई की एकमात्र प्रामाणिक और महत्वपूर्ण कृति है ।

मीरा बाई श्री कृष्ण की पूजा किया करती थी।

मीरा को राजस्थान की राधा भी कहा जाता है ।

मीरा के पदों की भाषा में राजस्थानी , ब्रज , गुजराती , पंजाबी इत्यादि का मिश्रण है ।

सन् 1603 में डाकोर (गुजरात) के रणछोड़ मंदिर में गिरधर में विलीन हो गई।

आमेर का जगत शिरोमणि मंदिर मानसिंह (प्रथम) की पत्नी ने अपने पुत्र जगत सिंह की स्मृति में बनवाया। इसे मीरा का मंदिर भी कहते हैं।

 

 संत रैदास 

यह कबीर के समकालीन थे ।

यह काशी के निवासी थे, परंतु इन्होंने कुछ समय राजस्थान में भी बिताया था ।

इन्होंने समाज में व्याप्त आडंबरों एवं भेदभाव का विरोध कर निर्गुण ब्रह्म की भक्ति का उपदेश दिया।

इनके छतरी चित्तौड़गढ़ के कुंभ श्याम मंदिर में है ।

इनके उपदेश "रैदास की पर्ची" नामक ग्रंथ में संग्रहित हैं।


 संत हरि रामदास जी - सिंहथल (बीकानेर)

इनका जन्म एवं मृत्यु सिंहथल (बीकानेर ) में हुई।

यह रामस्नेही संप्रदाय की सिंहथल शाखा के प्रवर्तक थे ।


संत रामदास जी - खेड़ापा (जोधपुर)

जन्म भीकमकोर (जोधपुर) एवं मृत्यु खेड़ापा (जोधपुर) में हुई।

यह रामस्नेही संप्रदाय की खेड़ापा शाखा के प्रवर्तक थे।


 संत मावजी 

इनका जन्म डूंगरपुर जिले की आसपुर तहसील के सांवरा गांव में हुआ था ।

इन्होंने निष्कलंक संप्रदाय की स्थापना की थी ।

बेणेश्वर धाम की स्थापना इन्होंने ही करवाई थी।

गवरी बाई 

इनका जन्म डूंगरपुर के नाहर कुल में हुआ।

उन्होंने मीरा की तरह भक्ति रस की धारा प्रवाहित की थी।

इन्हें बांगड़ की मीरा भी कहा जाता है।


 आचार्य तुलसी

 इनका जन्म नागौर जिले के लाडनूं कस्बे में 20 अक्टूबर 1914 को हुआ ।

उन्होंने 11 वर्ष की आयु में ही साधु जीवन अपना लिया था।

इनके गुरु कालूगणि ने इनकी योग्यता पर विश्वास कर वृहद संघ का गुरुतर भार इन्हें सौंप दिया ।

इन्होंने जन जीवन के नैतिक उत्थान एवं आध्यात्मिक मूल्यों की स्थापना के लिए अणुव्रत के नाम से राष्ट्रीय स्तर पर एक वैचारिक क्रांति दी।

आचार्य तुलसी के सपने का साकार रूप लाडनू में जैन विश्व भारती विश्वविद्यालय है।


 संत बालानंदाचार्य जी 

इनका जन्म 1635 ईस्वी में गढ़मुक्तेश्वर में हुआ था।

इनका बचपन का नाम बलवंत शर्मा गौड़ था ।

इन्होंने अपने गुरु स्वामी बिरजानंद जी के साथ लश्कर (सैन्य दल) में रहकर सैन्य गतिविधियाँ सीखी।

इन्होंने राजस्थान भ्रमण के दौरान जयपुर एवं लोहार्गल में पीठ की स्थापना की।

यह धर्म को हानि पहुंचाने वालों को युद्ध के लिए ललकारते थे, और अपराध स्वीकार कर लेने पर उन्हें चरण पादुकाएं देकर क्षमा कर देते थे।

 इनके मेवाड़ के महाराणा, बूंदी के छत्रसाल , जोधपुर के वीर दुर्गादास, जयपुर के राजा जयसिंह से भी घनिष्ठ संबंध थे।

इन्हें एक हाथ में चरण पादुकाए तथा दूसरे हाथ में तलवार वाले संत भी कहते हैं।


 मुस्लिम संत या  पीर

 ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती - अजमेर

इनका जन्म फारस नामक देश में हुआ था ।

इन्होंने अजमेर को अपनी कार्य स्थली बनाया।

अजमेर में इनकी प्रसिद्ध दरगाह है जहां विशाल उर्स मेला लगता है ।

यह हिंदू मुस्लिम सांप्रदायिक सद्भाव का सर्वोत्तम स्थल है।



नरहड़ के पीर - चिड़ावा (झुंझुनू)

शेख सलीम चिश्ती इन्हीं के शिष्य थे ।

शेखावाटी क्षेत्र में इनकी बहुत मान्यता है ।

यह बांगड़ के धनी के रूप में भी प्रसिद्ध है।

ऐसा माना जाता है कि पागलपन के असाध्य रोग भी इनकी जात देने से ठीक हो जाते हैं ।


पीर फखरुद्दीन 

यह दाऊदी बोहरा संप्रदाय के आराध्य पीर हैं।

इनकी दरगाह गलियाकोट (डूंगरपुर) में स्थित है।


प्रतियोगिता परीक्षाओं हेतु महत्वपूर्ण प्रश्न


जांभोजी को पर्यावरणीय वैज्ञानिक भी कहा गया है ।

दादू पंथ के सत्संग स्थल को अलख दरीबा कहते हैं ।

रज्जब जी - यह जीवन भर दूल्हे के वेश में रहे ।

संत धन्ना जी को राजस्थान में भक्ति आंदोलन का प्रवर्तक माना जाता है।

मीराबाई का बचपन का नाम पेमल था। 

मीरा को राजस्थान की राधा भी कहा जाता है ।

गवरी बाई को बांगड़ की मीरा भी कहा जाता है।

आचार्य तुलसी ने अणुव्रत के नाम से राष्ट्रीय स्तर पर एक वैचारिक क्रांति दी।

 संत बालानंदाचार्य जी को एक हाथ में चरण पादुकाए तथा दूसरे हाथ में तलवार वाले संत भी कहते हैं।


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